इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही
पर्वत से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्तक नहीं झुकाता है
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है
अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती
फिर संध्या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी
इस धरती का हर लाल खुशी से उदय अस्त अपनाता है
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है
हर संध्या को इसकी छाया सागर सी लंबी होती है
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर सी लंबी होती है
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है
जैसा यह अटल, अडिग अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी
कोई क्या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दुःख देकर हमको क्या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दुःख में भी मुसकाता है
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है
टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं
तूफान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं
जब जब जनता को विपदा दी
तब तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफान, चिरागों से शरमाता है
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है