जीवन की डोर छोर छूने को मचली,
जाड़े की धूप स्वर्ण कलशों से फिसली,
अन्तर की अमराई
सोई पड़ी शहनाई,
एक दबे दर्द-सी सहसा ही जगती ।
नई गाँठ लगती ।
दूर नहीं, पास नहीं, मंजिल अजानी,
साँसों के सरगम पर चलने की ठानी,
पानी पर लकीर-सी,
खुली जंजीर-सी ।
कोई मृगतृष्णा मुझे बार-बार छलती ।
नई गाँठ लगती ।
मन में लगी जो गाँठ मुश्किल से खुलती,
दागदार जिन्दगी न घाटों पर धुलती,
जैसी की तैसी नहीं,
जैसी है वैसी सही,
कबिरा की चादरिया बड़े भाग मिलती ।
नई गाँठ लगती ।
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